एक बूँद
ज्यों निकल कर बादलों की गोद से।
थी अभी एक बूँद कुछ आगे बढ़ी।।
सोचने फिर फिर यही जी में लगी।
आह क्यों घर छोड़कर मैं यों बढ़ी।।
दैव मेरे भाग्य में क्या है बढ़ा।
में बचूँगी या मिलूँगी धूल में।।
या जलूँगी गिर अंगारे पर किसी।
चू पडूँगी या कमल के फूल में।।
बह गयी उस काल एक ऐसी हवा।
वह समुन्दर ओर आई अनमनी।।
एक सुन्दर सीप का मुँह था खुला।
वह उसी में जा पड़ी मोती बनी।।
लोग यों ही है झिझकते, सोचते।
जबकि उनको छोड़ना पड़ता है घर।।
किन्तु घर का छोड़ना अक्सर उन्हें।
बूँद लौं कुछ और ही देता है कर।।
-अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध
amazinggg poem!!such a nice way to inspire as a whole
ReplyDeletethe poem along with this whole layout and ambiance
of the blog!!
kudos!!
its one of ma fav poems v did it in school as a kid...i had forgotten abt it until one day Suri Sir recited it for us n i fel in lov wid it agn...
ReplyDeleten now its part on da blog!
:)
its amazing.... its very INSPIRING.. try 2 c da hidden meaning its awesome....!!!
ReplyDeleteSuri Sir :O
ReplyDeleteMultifaceted :P:P
Tell him he is getting famous :D
Its a big deal to be mentioned on our blog!!
The best words beaded together!
kkya baat hai.bahut achhi hai poem.very inspiring.
ReplyDeletevalue of "ek bund"....
ReplyDeleteshriya garg